मंगलवार, 17 जुलाई 2012

पड़ाव

जाने कहाँ से ,
इन्सान इस दुनिया में
आता  है,
अपनी असलियत से बेखबर,
यहीं का होके रह जाता है,
तिनका-तिनका जोड़ कर
घर बनाता है,
राह में पड़ने वाले,
 पडावो की ही अपनी मंजिल समझता है,
और अपनी असली मंजिल
को भूल जाता है,
 हँसता है, रोता है,
जगता है, सोता है,
और इसी तरह से दिन गुजारता है,
और जब एक दिन,
 पड़ाव उठने का समय आता  है,
तो अपना सब कुछ यहीं छोड़ कर ,
वो अपनी मंजिल की तरफ चला जाता है।

ये जो आँखों से बहते हैं,
आंसू कितना कुछ कहते हैं।


आवाज नहीं करते कोई,
 चुप रह कर सब कुछ सहते हैं,
कोई समझे इनकी भाषा ,
तो जाने ये क्या कहते हैं।

पलकों की चारदीवारी में,
कभी कैद कभी रिहा होकर,
आँखों के इन दो सीपों में,
 बूंदों के मोती  रहते हैं।

ये जो आँखों का पानी है,
इसकी भी अजब कहानी है,
ये तो शबनम का कतरा है,
बस कतरा-कतरा बहते हैं।


खाली रातों में जागते रहना,
चाँद तारों को ताकते  रहना,
सोचते और सोचते जाना ,
रात  की उम्र  नापते  रहना,
नींद से जैसे दुश्मनी की हो,
और ख्वाबों से भागते रहना,
जागती रात  के सफ़र तन्हा ,
सिर्फ तन्हा ही काटते रहना।

शुक्रवार, 29 जून 2012


तन्हाई सज़ा  नहीं,
सामना है हकीकत से,
दुनिया के सच को जान कर,
खुद से मुखातिब होना ही ,
तन्हाई है।
जो जितना तनहा है,
उतना ही रूबरु है,
दुनिया की असलियत से,
पास है खुद के।
जो जितना भीड़ में है,
उतना ही बेखबर है,
 सच से,
दूर है अपने आप से।
तनहा होना
दुनिया की नज़र में,
नाकामयाब सही,
पर कामयाब है वो ,
भीड़ से निकल कर ,
खुद तक पहुँच पाने की कोशिश में,
तन्हाई ही है ,
जिन्दगी का सच,
जो कल भी था ,
और आगे भी रहेगा,
चाहे कोई कितनी  भी,
कोशिश करे,
 भीड़ में खोकर,
इस सच को भुलाने की।

शनिवार, 23 जून 2012

बिखरे मोती

बिखरे मोती मेरी डायरी में लिखी  वो पंक्तियाँ हैं जो मैं खुद नहीं जानती कि  कब लिख कर भूल गई।
और आज उन सबको समेट कर एक जगह एकत्रित करने की कोशिश कर रही हूँ ....................



में विवश हूँ,
कह नहीं सकती जो कहना चाहती हूँ,
डूबती हूँ भावनाओ के भंवर में,
शब्दों की गहराईयों को नापती हूँ,
मैं विवश हूँ।




क्यों जीने को विवश हो गए ऐसा जीवन ,
अन्दर से हूँ मृत,
बाहर जीने का उपक्रम।



हर सपने की नियति नहीं होती सच बनना,
हर आँसू होता है किसी का टूटा सपना



जोह रही थी बाट  ,
कब से सुख की मैं,
दुःख ये कैसा अनकहे ही आ गया,
न रहा सुख-दुःख में फिर अंतर कोई,
मुझको उस ऊँचाई  पर पहुंचा गया।





एक लम्बा सफ़र तय कर लिया है मैंने,
 पर मन के अन्दर झांकती हूँ,
 तो खुद को वहीँ खड़ा पाती  हूँ,
 जहाँ से चलना शुरू किया था,
वक़्त बदलता है,
हालात बदलते हैं,
 पर क्यों मैं नहीं बदल पाती खुद को ?
नहीं बिठा पाती  हूँ सामंजस्य ,
लोगों से, परिस्थितियों से,
चाह  कर भी,
 शायद मैं बदलना चाहती भी नहीं हूँ,
खुद को,
प्यार करती हूँ मैं अपने इसी रूप से ,
जो रहता है अपरिवर्तित ,
हर परिस्थिति  में 

गुरुवार, 21 जून 2012

मरुस्थल


ये जीवन एक मरुस्थल है,
 जलती भूमि तपती रेत ,
चलती हूँ झुलसे पाँवों से ,
कब हो जाऊं कहाँ अचेत।

पग-पग पर काँटे ही काँटे,
यातनाओ से त्रस्त शरीर,
थका हुआ तन,
थका हुआ मन ,
उड़  जाने को प्राण अधीर।

भटकाती है म्रगमरीचिका,
पल-पल और बढाती प्यास,
कभी-कभी तो यूँ  लगता है,
अब छूटी  तब  छूटी  साँस।
 

कली

 वो कली ,
है अधकली ,
मुस्काई सी,
सोचती हूँ तोड़ लूँ
उसको अभी मैं,
और सुखा कर रख लूँ
एक किताब मैं,
इससे पहले कि
बिखर जाये वो
हवा के बहाव में,
व्यर्थ है,
किन्तु ये सब,
 बिखरना है उसे हर हल में,
सूखने से पहले ,
या फिर सूखने के बाद में।
 

तृष्णा

मेरे मन की भूमि पर ,
न जाने कहाँ से,
 असंतोष का एक बीज,
 अंकुरित हो गया है,
जो दिन पर दिन ,
बढता हुआ पहले पौधा ,
और अब एक पेड़ बन चुका है,
इसकी कामनाओं,
 और इच्छाओं रुपी शाखाओं को,
जितना काटो उतना ही बड़ती जाती हैं,
और अधूरी आकांछाओं  रुपी पत्तियां,
नित्य झड़ती हैं,
और उतनी ही तेजी से,
 पल्लवित होती रहती हैं,
सूख चुकी है मन की भूमि,
रुक गए हैं उन्नति रुपी,
 धूप और पानी के सभी स्रोत ,
फिर भी निरंतर बढता जा रहा है,
ऐसा लगता है की मानो,
 इन इच्छाओं  और कामनाओं का जंगल ,
 इतना बढ  जायेगा ,
कि  भटक कर रह जाऊंगी ,
उसमें मैं।

मंगलवार, 19 जून 2012


आश्रय

आश्रित नहीं,
आश्रय बनो,

तुम एक नन्ही ज्योति हो,
लाखो दिए जो जलाएगी,
जो रौशनी का स्रोत हो,
 तुम ऐसा दीपालय  बनो,
आश्रित नहीं,
आश्रय बनो।

पथ-प्रदर्शक


 जीवन की उलझी राहों में,
कुछ कांटे भी है,
फूल भी है,
तुम कांटे पा कर मत रोना ,
और फूल मिलें तो मत खोना ,
 ये ही वो पथ-प्रदर्शक हैं,
जो तुमको राह दिखातें हैं,
और मंजिल तक पहुंचाते हैं।



आत्मदर्शन

बस दो चार किताबें,
पढ  कर ,
थोडा सा ज्ञान इकठ्ठा कर के,
 मैं बन जाना चाहती हूँ ,
ज्ञानी, विचार, दार्शनिक ,
बिना साधना किये ही,
पा लेना चाहती हूँ,
लक्ष्य को,
बिना अपने अंतर्मन में झांके ही,
पा लेना चाहती हूँ आत्मज्ञान ,
भूल जाती हूँ ,
 स्वयं को जानने के लिए,
मुझे झाकना पड़ेगा ,
अपने ही अन्दर,
बहुत गहराइयों में,
जहाँ से निकलेंगी ,
ज्ञान की तरंगे,
जो कराएंगी,
मेरा साक्षातकार ,
सत्य से,
किन्तु उस गहराई तक जाने के लिए,
मुझे उतार देना हो,
व्यर्थ किताबी ज्ञान का बोझ,
और बन जाना होगा,
एक जिज्ञासू ,
निश्छल, निष्पाप,
सत्य जानने को उत्सुक ,
बिलकुल उसी प्रारंभिक अवस्था में,
जहाँ मैं  थी,
एक अबोध बच्चे की तरह।
 

खिलौना



भाग्य और परिस्थितियों के हाथों ,
खिलोने की भांति नाच-नाच कर,
इन्सान कभी थक सा जाता है,
मन ग्लानी और क्षोभ से भर जाता है,
जीवन अर्थ-हीन सा लगता है,
अपना अस्तित्व,
 मिट्टी  के खिलोने सा नज़र आता  है,
तब उसके अन्दर कुछ टूट सा जाता है,
लेकिन बार-बार टूट कर भी ,
जब वह जुड़  जाता है ,
परिस्थितियों का सामना करने की ,
स्वयं से ही प्रेरणा पाता है,
 अपने अन्दर एक प्रकाश सा नज़र आता  है,
जब जीवन एक  संघर्ष बन जाता है,
जीवनपर्यंत लड़ते -लड़ते,
 भाग्य और परिस्थितियों से ,
हार कर भी जीत जाता है।
,

सोमवार, 18 जून 2012


अभी सुबह ही कॉलेज जाते हुए,
बस की खिड़की से मैंने वह अदभुत द्रश्य देखा था,
लालकिले की दीवार के पीछे से उगता हुआ,
नन्हा सा लाल सूरज,
और उसके चारो ओर फैले हुए,
 आवारा नन्हे बादलों  के टुकड़े ,
जो सुबह की हलकी रौशनी में,
ऐसे लग रहे थे,
मानो किसी नदी के किनारे की गीली मिटटी ,
जी चाहा कि  भीड़ और धुयें से उठकर,
अपने पांव रखूँ उन पर,
और महसूस करू उनका गीलापन,
जो सूरज के इतने पास होते हुए भी,
कितना शीतल दिखाई दे रहा था,
 लेकिन जल्द ही  वह द्रश्य ,
मेरी आँखों के आगे से ओझल हो गया,
सूरज गर्म और गर्म होता गया ,
और में बस से उतर कर,
फिर खो गयी,
उन्ही धुंएँ  और धुल भरी सड़कों पर।


रविवार, 17 जून 2012


माँ,
 मैं  आज रात फिर नही सोयी,
 तुम्हारी चिंता में,
क्योंकि मैं  जानती हूँ कि ,
 तुम भी नहीं सोयी होगी वहां,
और सोती भी कैसे?,
फिर सताया होगा तुम्हे रात भर,
तुम्हारी उस पुरानी  बीमारी ने ,
 दर्द से कराहती रही होगी रात भर तुम ,
 बंधी हुयी हूँ मैं  परिस्थितियों में यहाँ,
चाह कर भी  आ नहीं सकती तुम्हारे पास वहाँ ,
घबराती हूँ,
तड़पती हूँ,
रह रह कर,
चीख चीख कर कहता है मेरा मन,
जा पुकार रही होगी तुझे तेरी माँ ,
वही माँ जो तेरे जरा से दर्द से घबरा जाती थी,
तुझे कंधे से लगाये पूरी रात बिताती थी,
सहलाती थी तेरी एक नन्ही सी चोट को भी,
तेरे एक आँसू से भी परेशां हो जाती थी,
और आज वो परेशां है,
कह नहीं सकती किसी से अपनी व्यथा ,
तकती रहती हैं उसकी आँखें तेरा रस्ता,
छोड़  दे ये वयस्तता ,
कुछ पल बिता माँ के साथ जा।













शनिवार, 16 जून 2012


देखा है मैंने ,
जाने कितने रिश्तों को ,
बनते हुए और बिगड़ते  हुए,
एक-एक कदम बड़ा कर ,
लोगो को करीब आते हुए,
और फिर छोटी -छोटी बातों  पर,
रिश्तो में दरारे आते हुए,
महसूस किया है मैने,
देखकर एक ही इंसान में,
देवता भी और दानव भी,
कि  क्या है जो बदलता रहता है,
एक इंसान के अन्दर,
उसका मन , उसकी भावनायें ,
उसकी मनोवृति या उसकी परिस्थिति।
 


एक द्वन्द सा चल रहा है,
मेरे और प्रारब्ध के बीच में,
हर बार मैं  सपने देखती हूँ,
और हर बार
वो मेरे सपनो को चूर चूर कर देता है,
जैसे कह रहा हो मुझसे कि ,
 किस अधिकार से तुम सपने देखती हो,
जब कुछ भी नहीं है तुम्हारे हाथ में,
पर मैं जैसे आदी हो चुकी हूँ,
सपने देखने की,
 जिस प्रकार बचपन में ,
बारिश के मौसम में,
कागज की नाव बनाकर तैराती थी मैं ,
आँगन के बहते पानी में,
और वो नाव कभी डूबती थी ,
तो कभी पार लग जाती थी ,
लेकिन मैं अंजाम की चिंता किये बिना
आज तक बारिश  के मौसम में,
 कागज की नाव तैराती आ रही हूँ,
और सपने देखती आ  रही हूँ।


अब टूटने लगा है मेरा  नाता,
इस बाहरी संसार से,
बना ली है मेने अपने अन्दर,
अपनी ही एक दुनिया,
जिसमें रहती हूँ मैं ,
बस मैं ,
वर्जित है उसमें,
किसी अन्य का प्रवेश,
और जीना सीखने लगी हूँ,
अपनी उसी दुनिया में,
जानते हुए कि  बहुत कठिन है,
दुनिया से कट कर जीना,
क्योंकि ये ऐसा ही है,
जैसे भीड़ के साथ,
 न चल पाने की  विवशता के बाद,
अपनी एक अलग राह बनाना ,
पर क्या पता कभी ये  राह ही,
मुझे मेरी  मंजिल तक पहुँचा दे।

गुरुवार, 14 जून 2012


मन में उमड़ती भावनाएं,
टकराती हैं ह्रदय की दीवारों से,
शब्दों के शरीर धारण कर के,
आना चाहती हैं बाहर इस संसार में,
अंकित हो जाने को कविता बन कर ,
किसी पन्ने पर,
लेकिन बाहर आते ही,
भागती हैं इधर- उधर,
बचने को कलम की स्याही से,
बहुत कठिन हो जाता है तब ,
 इन्हें इकठ्ठा करना ,
असमर्थ हो जाते हैं शब्द ,
उन्हें बांध पाने में,
और रह जाती है मेरी हर कविता
 कुछ अधूरी सी।

चिड़िया का घौंसला,
एक एक तिनका जोड़ कर बनाया हुआ,
बस उसका और उसके बच्चो का,
छोटा सा अशीयाना ,
न कमरे, न दरवाजे , न कोई सामान,
फिर भी कितना सुन्दर,
मूक पछियों के प्रेम का
एक जीवंत  उदाहरण,
फिर हम क्यों इकठ्ठा करते हैं इतना सामान,
अधिक से अधिक पाने की दोड़  में,
होते जाते हैं ,
 एक दूसरे से दूर,
क्या  हम नहीं रह सकते ,
इन्हीं की तरह ,
प्यार के ताने बानो से बुने हुए,
एक नन्हे से घरोंदे में?

मंगलवार, 12 जून 2012


इस रात की काली  चादर में,
मैं जाने क्या ढूंढा  करती हूँ,
कोई सुराग नज़र आये ,
उम्मीद सुबह की जो लाये,
इन थकी हुयी सी आँखों में,
कोई मीठा  सपना लाये,
फिर शायद नींद मुझे आये।

कितनी ही रातें गुज़र गयी,
मैं  यूँ ही जागा करती हूँ,
जो सपने मुझे डरते हैं,
में उनसे भागा करती हूँ,
सपनो की आँख मिचोली से
थक कर फिर आँखे सो जायें ,
फिर शायद नींद मुझे आये।






ये सपने मेरे दुश्मन हैं,

आँखों में जितने आंसू हैं
 ये सपनी की ही देन  हैं सब ,
अवचेतन मन का भ्रम है ये
ये रोके से रुकते हैं कब,
ये एक अनचाहा बंधन हैं,
ये सपने मेरे दुश्मन हैं।

खुलती है इनकी सच्चाई
कुछ हाथ नहीं आता  है जब,
ये राहों  से भटकतें हैं
ये मंजिल तक पहुंचाते कब,
ये केवल मन का मंथन हैं,
ये सपने मेरे दुश्मन हैं।

जब भी कोई सपना टूटा है
मैं रोई हूँ मन टूटा है ,
लेकिन आँखों से सपनो का
न साथ अभी भी छूटा  है,
सपने ही दुःख का कारण  हैं ,
ये सपने मेरे दुश्मन हैं।

हर बार मैं  कसमे खाती  हूँ ,
अपने मन को समझाती हूँ,
सपनो की भूलभुलैया में
 लेकिन फिर भी खो जाती हूँ,
ये तो तृष्णाऑ  का वन है,
ये सपने मेरे दुश्मन हैं।
बस कुछ और दिन,
चलना होगा तपती भूमि पर,
झुलसेंगे पाँव धूप में,
पर शीघ्र ही आएगी बारिश,
जो देगी प्यासी धरती को नवजीवन,
घाव भर जायेंगे,
फिर मिटटी में पांव गीले हो जायेंगे,
ये भी हो सकता है,
ऐसे में कहीं
कोई मुरझायी हुई कली ,
फिर से खिल उठे।

भीड़ है पर कहाँ ,
मुझे तो दूर तक
कोई साया भी  नज़र नहीं आता ,
आधे सोये हुए बेजान पुतले हैं चारो तरफ ,
जिन्दगी का कोई नामोनिशान नहीं आता ,
एक शोर सा है कहीं  दूर से आता  हुआ,
लेकिन उससे ज्यादा गहरी
ख़ामोशी फ़ैली है फिजाओं में,
खून में मिली हुई है नफरत,
जो दोड़ती हैं रगों में,
प्यार का कहीं नमो-निशान नज़र नहीं आता ,
धड़कने जिन्दगी का नहीं खौफ़ का आईना हैं,
कहीं भी चैन और आराम नज़र नहीं आता ।


समय गुज़रता है जैसे,
मुट्ठी से फिसलती हुई रेत ,
सपने टूट जाते हैं जैसे,
मिटटी का घरोंन्दा ,
यादें रह जाती हैं जैसे
 रेत  में बने हुए क़दमों के निशान ,
खुशिया छरिक  हैं
 जैसे बनती बिगरती लहरें ,
जिन्दगी लगती है जैसे,
ढलता हुआ सूरज,
सब कुछ जैसे डूबता सा ,टूटता सा .

मनुष्य का अस्तित्व
 परिस्तिथियों के झंझावत में
लहरों से जूझता  हुआ एक तिनका
बहता रहता है लहरों के साथ ,
अपने स्थायित्व की चाह में ,
लहरों के जरा शांत होते ही,
आ जाता है सतह पर,
लेकिन फिर कोई नयी लहर
 आ कर ले जाती है ,
उसे कहीं का कहीं
ओर वो न डूबता है न किनारे ही लगता है,
बस बहता ही रहता है किनारों के साथ साथ .




दिल में बैचैनी नहीं ,
माथे पर शिकन तक नहीं ,
फिर क्यों अजनबी की तरह ये दो आँसू ,
आँख से बह निकले हैं,
शायद दिल में दबे हुए
उस दर्द ने फिर आँख खोली है
जिसे भूल जाती हूँ अक्सर
में इस दुनिया के शोर में
लेकिन मेरे अन्दर कोई है
 जो दिन रत रोता है
 कभी नहीं भूलता है,
उस दुःख को और
 उसी दुःख की आग में पिघल कर वो बहता रहता है
मेरी आँखों के रस्ते से,
और बहता रहेगा ताउम्र ,
मेरे न चाहने पर भी इसी तरह बेआवाज हो कर 

जीवन कुछ और नहीं
मृत्यु की एक ऊब भरी प्रतीक्षा  है ,
द्वन्द है,संघर्ष है,
जिसका  न कोई निष्कर्ष है,
पग पग पर अग्निपरीक्षा है
 मृत्यु की एक ऊब भरी प्रतीक्षा है 


दुख है ,संताप है,
शोक है विलाप है,
दुःख दर्द भरी इस दुनिया में फिर भी जीने की इच्छा  है ,
मृत्यु  की एक ऊब भरी प्रतीक्षा है।
हथेली पे चेहरे को टिकाये ,
 शून्य में  एकटक निहारते हुये
 विचारों में खोये रहना ,
अब तो ये आदत सी हो गयी है,
हजार तरह की
बेड़ियों  से जकड़े  रहने के बाद,
यही एक आरामदायक स्थिति  है,
जिसमे मुझे स्वच्छंद्ता  का अनुभव होता है,
अच्छा  है सोच पर कोई अंकुश नहीं होता ,
 सब कुछ जान कर भी
अजनबीपन के  मुखोटो  को ओडे   हुए ,
लोगो से उकता कर,
जब में अपने विचारो की दुनिया में आती हूँ ,
अपनी वास्तविक स्थिति में
तब में अपने बहुत करीब आ जाती हूँ,
कभी कभी तो अपने विचारो की दुनिया से
बहार आने की इच्छा ही नहीं होती,
लेकिन फिर भी अपने विचारों की
स्वच्छंद उड़ानों  को रोक कर मुझे आना ही पड़ता है,
मुझे वास्तविकता के कठोर धरातल पर,
क्योंकि आखिर जीना तो हमें इसी दुनिया में है 

आंसुओ का झरना



में झाकना चाहती हूँ अपने अन्दर
 देखना चाहती हूँ कहाँ से आता है
आंसुओ  का ये झरना बह कर ,
 जो अटक जाता  है मेरी पलकों पर
और कभी कर देता है मेरे आँचल को तर ,
ढूंढ कर उस जगह को बोना चाहती हूँ
एक ख़ुशी
का बीज वहां पर,
की फिर निकले तो बस हंसी ही निकले
मेरे इन होठो पर

परिवर्तन


यदि  जीवन में दुःख और सुख की
परिवर्तनशीलता न होती तो शायद कविता भी न होती ,
क्योंकि कोई कहा तक लिखेगा
प्रकति पर,
मौसमो पर,
और सुन्दरता  पर,
मन सुन्दरता की भी एक भाषा होती है,
लेकिन सदा नए की चाह रखने वाले
कवि को
अपरिवर्तनशील सुन्दरता क्या दे पायेगी?
एक कवी की लेखनी तो अंत में
सुख दुःख की परिवर्तनशीलता को ही
अपनी  कविता बनाएगी।
हर इन्सान छुपाये है
अपने  अन्दर
एक अंतहीन खालीपन,
 एक दर्द का गुबार ,
एक कभी न ख़त्म होने वाला विचारों का काफिला ,
साडी उम्र अन्दर ही अन्दर
वो ज़ूझता रहता है ,
अपने अन्दर के उस तूफ़ान से ,
सुख हो या दुख
लेकिन वो पीडा वैसी  ही रहती है,
दूसरा कोई कितना भी झांके उसके अन्दर
और ढूंढे पर नहीं पा सकता
उसका छो र
वो खुद भी चाहे तो व्यक्त नहीं कर सकता ,
नही समझा सकता औरो को ,
और वो खुद भी नहीं समझ पाता
  सारी  उम्र ,
की क्या चाहिए उसे?
हल नहीं कर पता
अपने अन्दर की उस अबूझ  पहेली को, उस अंतर्द्वंद को जो शांत होता है,
बस दिल की धड़कनो  के साथ ही।



बुलबुले

पाती  हूँ अपने अस्तित्व को में
पानी की लहरों से उठे हुए
उस बुलबुले की तरह
जिसमे धूप की किरणों के टकराने से
कुछ सतरंगी प्रतिबिम्ब से दिखाई देते हैं ,
जो पानी की सतह से ऊपर उठ कर
कुछ पल के लिए देखता है
अपने ऊपर फैले हुए उस खुले असीम आकाश को
और तोड़ देना चाहता है
अपना सम्बन्ध पानी से ,
मुक्त होकर उरना चाहता  है
उस खुले आकाश में ,
किन्तु अगले ही पल
उसे याद आता  है कि
पानी से अलग उसका कोई अस्तित्व नहीं है
और फिर प्रतीक्षा करने लगता है वह
उसी पानी में विलीन हो जाने की 

हंसी

 हंसी
कभी कभी बोझ क्यों लगती है ?
महज ऊपर से
ओढी  हुयी ,
एक खोखली औपचारिकता
या दूसरों का साथ देने की
एक  नाकाम कोशिश,
जिसका मन से कोई कोई सम्बन्ध न हो
चाबी के खिलोने जैसी संवेदना रहित,
 यांत्रिक ,
होठ बेशक  मुस्कुराते हो,
आँखें उनका साथ देने में असमर्थ  हो,
 दर्द की एक गहरी लकीर
मन के कैनवास पर उतरी हो
जिस पर हंसी के फूल उकेरना अब संभव न हो,
हर खिलखिलाहट के पीछे  एक गहरी टीस ,
हंसी,
हंसी न रह कर बन जाये एक आवरण ,
दर्द के बदशक्ल मकान  के
 दरवाजे पर  परा  हुआ ,
एक झीना पर्दा,
सिर्फ किसी की अनुभवी आँखें ही
 देख  सकतीं हैं जिसके आर पार
और समझ सकती हैं ,
उस ईमारत के खोखले पन  को,
ढूंढ सकती हैं हंसी की तह में
छुपे हुए उस बेइंतिहा दर्द को   .