शनिवार, 16 जून 2012


अब टूटने लगा है मेरा  नाता,
इस बाहरी संसार से,
बना ली है मेने अपने अन्दर,
अपनी ही एक दुनिया,
जिसमें रहती हूँ मैं ,
बस मैं ,
वर्जित है उसमें,
किसी अन्य का प्रवेश,
और जीना सीखने लगी हूँ,
अपनी उसी दुनिया में,
जानते हुए कि  बहुत कठिन है,
दुनिया से कट कर जीना,
क्योंकि ये ऐसा ही है,
जैसे भीड़ के साथ,
 न चल पाने की  विवशता के बाद,
अपनी एक अलग राह बनाना ,
पर क्या पता कभी ये  राह ही,
मुझे मेरी  मंजिल तक पहुँचा दे।

9 टिप्‍पणियां:

  1. स्वयं को साधने से बेहतर क्या है..? उसके लिए अपने तक सिमटना आवश्यक है.....

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  2. अपनी राह चुनी.....खुद अपना हाथ थामा तो सब विघ्न कट जाने हैं.........

    सुन्दर रचना भावना जी.

    अनु

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  3. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. लगता है आपकी मंजिल भी 'सत्-चित-आनन्द' ही है.
    बहुत सुन्दर भावना है आपकी.

    आपके नाम में आपकी पहचान छिपी हुई है.
    आपकी प्रस्तुति उन साधको के लिए वरदान ही
    जो अपने में स्थित असीम सुंदरता को,अखंड आनन्द
    का दर्शन करना चाहते हैं.

    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.

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  5. इआपकी ये बहुत उम्दा रचना ..भाव पूर्ण रचना .. बहुत खूब अच्छी रचना इस के लिए आपको बहुत - बहुत बधाई

    मेरी नई रचना

    खुशबू
    प्रेमविरह

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