गुरुवार, 21 जून 2012

मरुस्थल


ये जीवन एक मरुस्थल है,
 जलती भूमि तपती रेत ,
चलती हूँ झुलसे पाँवों से ,
कब हो जाऊं कहाँ अचेत।

पग-पग पर काँटे ही काँटे,
यातनाओ से त्रस्त शरीर,
थका हुआ तन,
थका हुआ मन ,
उड़  जाने को प्राण अधीर।

भटकाती है म्रगमरीचिका,
पल-पल और बढाती प्यास,
कभी-कभी तो यूँ  लगता है,
अब छूटी  तब  छूटी  साँस।
 

4 टिप्‍पणियां:

  1. हर कविता अपने आप में एक दुख को छुपाये हुए है सभी में कहीं न कहीं दुखों के कारण मर जाने का भाव छुपा है। आखिर ऐसा क्यूँ रचना बहुत अच्छी है बहुत खूब लिखा है तुमने भावो को खूबसूरती के साथ क्रम में सजा कर बहुत ही सुंदर और गहन भाव संयोजन किया है तुमने मगर हर रचना का मूल भाव एक ही है दुख ....ऐसा क्यूँ :)

    जवाब देंहटाएं