मंगलवार, 17 जुलाई 2012

पड़ाव

जाने कहाँ से ,
इन्सान इस दुनिया में
आता  है,
अपनी असलियत से बेखबर,
यहीं का होके रह जाता है,
तिनका-तिनका जोड़ कर
घर बनाता है,
राह में पड़ने वाले,
 पडावो की ही अपनी मंजिल समझता है,
और अपनी असली मंजिल
को भूल जाता है,
 हँसता है, रोता है,
जगता है, सोता है,
और इसी तरह से दिन गुजारता है,
और जब एक दिन,
 पड़ाव उठने का समय आता  है,
तो अपना सब कुछ यहीं छोड़ कर ,
वो अपनी मंजिल की तरफ चला जाता है।

ये जो आँखों से बहते हैं,
आंसू कितना कुछ कहते हैं।


आवाज नहीं करते कोई,
 चुप रह कर सब कुछ सहते हैं,
कोई समझे इनकी भाषा ,
तो जाने ये क्या कहते हैं।

पलकों की चारदीवारी में,
कभी कैद कभी रिहा होकर,
आँखों के इन दो सीपों में,
 बूंदों के मोती  रहते हैं।

ये जो आँखों का पानी है,
इसकी भी अजब कहानी है,
ये तो शबनम का कतरा है,
बस कतरा-कतरा बहते हैं।


खाली रातों में जागते रहना,
चाँद तारों को ताकते  रहना,
सोचते और सोचते जाना ,
रात  की उम्र  नापते  रहना,
नींद से जैसे दुश्मनी की हो,
और ख्वाबों से भागते रहना,
जागती रात  के सफ़र तन्हा ,
सिर्फ तन्हा ही काटते रहना।