मंगलवार, 12 जून 2012

हंसी

 हंसी
कभी कभी बोझ क्यों लगती है ?
महज ऊपर से
ओढी  हुयी ,
एक खोखली औपचारिकता
या दूसरों का साथ देने की
एक  नाकाम कोशिश,
जिसका मन से कोई कोई सम्बन्ध न हो
चाबी के खिलोने जैसी संवेदना रहित,
 यांत्रिक ,
होठ बेशक  मुस्कुराते हो,
आँखें उनका साथ देने में असमर्थ  हो,
 दर्द की एक गहरी लकीर
मन के कैनवास पर उतरी हो
जिस पर हंसी के फूल उकेरना अब संभव न हो,
हर खिलखिलाहट के पीछे  एक गहरी टीस ,
हंसी,
हंसी न रह कर बन जाये एक आवरण ,
दर्द के बदशक्ल मकान  के
 दरवाजे पर  परा  हुआ ,
एक झीना पर्दा,
सिर्फ किसी की अनुभवी आँखें ही
 देख  सकतीं हैं जिसके आर पार
और समझ सकती हैं ,
उस ईमारत के खोखले पन  को,
ढूंढ सकती हैं हंसी की तह में
छुपे हुए उस बेइंतिहा दर्द को   .

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