. ‘’देखिये पापा मैं आपसे कहे देती हूँ इस निर्जला एकादशी पर मैं आपको न तो मौन व्रत रखने दूँगी और न ही निराहार उपवास करने दूँगी ‘’पापा उसी
शांत मुद्रा में ,’’ठीक है ‘’..... मैं बोली ,’’ठीक है नही रखेंगे, आप हर बार यही कहते
हैं और फिर निर्जल मौन व्रत रख लेते है , पहले तो ठीक था लेकिन अब आपकी
तबियत ठीक नही रहती है ,व्रत रखने से तबियत और बिगड़ सकती है ‘’......मैं जानती थी
कोई फायदा नही है ,पापा करेंगे वही जो वो हमेशा से करते आए हैं, मैंने भी जीवन में
कभी पापा से बहस नही की, अब भी नही कर सकी....फिर भी हिम्मत जुटा कर बोली , ‘’पापा
पूरा जीवन संघर्षों में गुज़रा है , आखिर मिला ही क्या है आपको इतनी इतनी तपस्या के बाद ‘’.....मुस्कुरा कर जवाब दिया ,‘’
क्या नही मिला? इन संघर्षों से गुजरने की ऊर्जा यहीं से तो मिलती है , और फिर कुछ
मिले इसलिए ये सब नही किया जाता ये तो इस जीवन के बाद के लिए है ‘’ ....अब इसके
बाद मैं क्या कहती ? ...उनके आध्यात्मिक सिद्धांतों से मैं भली भांति परिचित हूँ
...निर्जला एकादशी हो या नवरात्र ,मौन साधना और निराहार व्रत , गहन साधना में लीन हो
जाना , किसी से नही मिलना , कमरे से बाहर भी नही निकलना मुझे बैचैन कर देता है
...लेकिन क्या करूं बचपन से उन्हें ऐसे ही देखती आई हूँ ... जल संस्थान के वरिष्ठ इंजीनियर , एक
अच्छे पुत्र , पिता और पति लेकिन अपने लिए बिलकुल हठ योगी ....चाय-कॉफ़ी जैसी किसी
भी आदत से परे, हमेशा सात्विक भोजन खाया , गर्मियों के दिनों में जब हम कूलर चला
कर सोते थे तब उनके कमरे में हल्का पंखा चलता था ....किसी भी चीज़ के आदि नही
....और विशेषकर नवरात्रों में कठिन साधना करना .... पूजा -उपासना तो मैं भी पूरे नियम से
करती हूँ , उपवास आदि भी रखती हूँ लेकिन पापा की तरह निर्जल मौन व्रत, बिलकुल दुनिया से
अलग रह कर जीना मेरे लिए संभव नही ....पर कभी कभी सोचती हूँ कि काश उनके जैसी
सहनशीलता थोड़ी भी मुझमें आ पाता तो जीवन और सरल हो जाता .....
antardwand
बुधवार, 15 जून 2016
सोमवार, 16 मार्च 2015
मंगलवार, 17 जुलाई 2012
पड़ाव
जाने कहाँ से ,
इन्सान इस दुनिया में
आता है,
अपनी असलियत से बेखबर,
यहीं का होके रह जाता है,
तिनका-तिनका जोड़ कर
घर बनाता है,
राह में पड़ने वाले,
पडावो की ही अपनी मंजिल समझता है,
और अपनी असली मंजिल
को भूल जाता है,
हँसता है, रोता है,
जगता है, सोता है,
और इसी तरह से दिन गुजारता है,
और जब एक दिन,
पड़ाव उठने का समय आता है,
तो अपना सब कुछ यहीं छोड़ कर ,
वो अपनी मंजिल की तरफ चला जाता है।
इन्सान इस दुनिया में
आता है,
अपनी असलियत से बेखबर,
यहीं का होके रह जाता है,
तिनका-तिनका जोड़ कर
घर बनाता है,
राह में पड़ने वाले,
पडावो की ही अपनी मंजिल समझता है,
और अपनी असली मंजिल
को भूल जाता है,
हँसता है, रोता है,
जगता है, सोता है,
और इसी तरह से दिन गुजारता है,
और जब एक दिन,
पड़ाव उठने का समय आता है,
तो अपना सब कुछ यहीं छोड़ कर ,
वो अपनी मंजिल की तरफ चला जाता है।
ये जो आँखों से बहते हैं,
आंसू कितना कुछ कहते हैं।
आवाज नहीं करते कोई,
चुप रह कर सब कुछ सहते हैं,
कोई समझे इनकी भाषा ,
तो जाने ये क्या कहते हैं।
पलकों की चारदीवारी में,
कभी कैद कभी रिहा होकर,
आँखों के इन दो सीपों में,
बूंदों के मोती रहते हैं।
ये जो आँखों का पानी है,
इसकी भी अजब कहानी है,
ये तो शबनम का कतरा है,
बस कतरा-कतरा बहते हैं।
शुक्रवार, 29 जून 2012
तन्हाई सज़ा नहीं,
सामना है हकीकत से,
दुनिया के सच को जान कर,
खुद से मुखातिब होना ही ,
तन्हाई है।
जो जितना तनहा है,
उतना ही रूबरु है,
दुनिया की असलियत से,
पास है खुद के।
जो जितना भीड़ में है,
उतना ही बेखबर है,
सच से,
दूर है अपने आप से।
तनहा होना
दुनिया की नज़र में,
नाकामयाब सही,
पर कामयाब है वो ,
भीड़ से निकल कर ,
खुद तक पहुँच पाने की कोशिश में,
तन्हाई ही है ,
जिन्दगी का सच,
जो कल भी था ,
और आगे भी रहेगा,
चाहे कोई कितनी भी,
कोशिश करे,
भीड़ में खोकर,
इस सच को भुलाने की।
शनिवार, 23 जून 2012
बिखरे मोती
बिखरे मोती मेरी डायरी में लिखी वो पंक्तियाँ हैं जो मैं खुद नहीं जानती कि कब लिख कर भूल गई।
और आज उन सबको समेट कर एक जगह एकत्रित करने की कोशिश कर रही हूँ ....................
में विवश हूँ,
कह नहीं सकती जो कहना चाहती हूँ,
डूबती हूँ भावनाओ के भंवर में,
शब्दों की गहराईयों को नापती हूँ,
मैं विवश हूँ।
क्यों जीने को विवश हो गए ऐसा जीवन ,
अन्दर से हूँ मृत,
बाहर जीने का उपक्रम।
हर सपने की नियति नहीं होती सच बनना,
हर आँसू होता है किसी का टूटा सपना
जोह रही थी बाट ,
कब से सुख की मैं,
दुःख ये कैसा अनकहे ही आ गया,
न रहा सुख-दुःख में फिर अंतर कोई,
मुझको उस ऊँचाई पर पहुंचा गया।
और आज उन सबको समेट कर एक जगह एकत्रित करने की कोशिश कर रही हूँ ....................
में विवश हूँ,
कह नहीं सकती जो कहना चाहती हूँ,
डूबती हूँ भावनाओ के भंवर में,
शब्दों की गहराईयों को नापती हूँ,
मैं विवश हूँ।
क्यों जीने को विवश हो गए ऐसा जीवन ,
अन्दर से हूँ मृत,
बाहर जीने का उपक्रम।
हर सपने की नियति नहीं होती सच बनना,
हर आँसू होता है किसी का टूटा सपना
जोह रही थी बाट ,
कब से सुख की मैं,
दुःख ये कैसा अनकहे ही आ गया,
न रहा सुख-दुःख में फिर अंतर कोई,
मुझको उस ऊँचाई पर पहुंचा गया।
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