सोमवार, 18 जून 2012


अभी सुबह ही कॉलेज जाते हुए,
बस की खिड़की से मैंने वह अदभुत द्रश्य देखा था,
लालकिले की दीवार के पीछे से उगता हुआ,
नन्हा सा लाल सूरज,
और उसके चारो ओर फैले हुए,
 आवारा नन्हे बादलों  के टुकड़े ,
जो सुबह की हलकी रौशनी में,
ऐसे लग रहे थे,
मानो किसी नदी के किनारे की गीली मिटटी ,
जी चाहा कि  भीड़ और धुयें से उठकर,
अपने पांव रखूँ उन पर,
और महसूस करू उनका गीलापन,
जो सूरज के इतने पास होते हुए भी,
कितना शीतल दिखाई दे रहा था,
 लेकिन जल्द ही  वह द्रश्य ,
मेरी आँखों के आगे से ओझल हो गया,
सूरज गर्म और गर्म होता गया ,
और में बस से उतर कर,
फिर खो गयी,
उन्ही धुंएँ  और धुल भरी सड़कों पर।


4 टिप्‍पणियां:

  1. ये ही तो जिंदगी की दौड़ हैं ...और असल जिंदगी भी

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  2. सच यही ज़िंदगी है ....



    कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...

    वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
    डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .

    जवाब देंहटाएं