एक द्वन्द सा चल रहा है,
मेरे और प्रारब्ध के बीच में,
हर बार मैं सपने देखती हूँ,
और हर बार
वो मेरे सपनो को चूर चूर कर देता है,
जैसे कह रहा हो मुझसे कि ,
किस अधिकार से तुम सपने देखती हो,
जब कुछ भी नहीं है तुम्हारे हाथ में,
पर मैं जैसे आदी हो चुकी हूँ,
सपने देखने की,
जिस प्रकार बचपन में ,
बारिश के मौसम में,
कागज की नाव बनाकर तैराती थी मैं ,
आँगन के बहते पानी में,
और वो नाव कभी डूबती थी ,
तो कभी पार लग जाती थी ,
लेकिन मैं अंजाम की चिंता किये बिना
आज तक बारिश के मौसम में,
कागज की नाव तैराती आ रही हूँ,
और सपने देखती आ रही हूँ।
सुन्दर स्वप्न देखतीं हैं आप
जवाब देंहटाएंप्रारब्ध के परे जाने का
नया प्रारब्ध रचने का
ताकि नैय्या पार हो जाए
यानि कोई प्रारब्ध बाकी ही न रहे.
क्या मैंने ठीक विश्लेषण किया है आपकी
प्रस्तुति में भासित भावना का ?
ji sahi vishleshan kiya aapne,mere blog par ane ke liye dhanyavad aapka
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