मंगलवार, 12 जून 2012


समय गुज़रता है जैसे,
मुट्ठी से फिसलती हुई रेत ,
सपने टूट जाते हैं जैसे,
मिटटी का घरोंन्दा ,
यादें रह जाती हैं जैसे
 रेत  में बने हुए क़दमों के निशान ,
खुशिया छरिक  हैं
 जैसे बनती बिगरती लहरें ,
जिन्दगी लगती है जैसे,
ढलता हुआ सूरज,
सब कुछ जैसे डूबता सा ,टूटता सा .

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