गुरुवार, 21 जून 2012

तृष्णा

मेरे मन की भूमि पर ,
न जाने कहाँ से,
 असंतोष का एक बीज,
 अंकुरित हो गया है,
जो दिन पर दिन ,
बढता हुआ पहले पौधा ,
और अब एक पेड़ बन चुका है,
इसकी कामनाओं,
 और इच्छाओं रुपी शाखाओं को,
जितना काटो उतना ही बड़ती जाती हैं,
और अधूरी आकांछाओं  रुपी पत्तियां,
नित्य झड़ती हैं,
और उतनी ही तेजी से,
 पल्लवित होती रहती हैं,
सूख चुकी है मन की भूमि,
रुक गए हैं उन्नति रुपी,
 धूप और पानी के सभी स्रोत ,
फिर भी निरंतर बढता जा रहा है,
ऐसा लगता है की मानो,
 इन इच्छाओं  और कामनाओं का जंगल ,
 इतना बढ  जायेगा ,
कि  भटक कर रह जाऊंगी ,
उसमें मैं।

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